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गेहू के खरपतवार व खरपतवारनाशी की मात्रा,उपयोग समय,upyog ki matra की विधि

 

 

 आप सभी किसानो के लिए हम एक गेहू के खरपतवार के लिए समाधान ले कर आये जो आप के गेहू की फसल में होने वाले सभी खरपतवारो को जस से समाप्त करेगा |

 


 

 

गेहू में उगने वाले खरपतवार कुछ इस प्रकार है 

  1. गेहुसा (गुल्ली -डण्डा)-फेलेरिस माइनर
  2. हिरनखुरी
  3. जंगली जई
  4. बथुआ
  5. कृषणनील   

नियंत्रण

  1. आइसोप्रोटयुरान 750 gm 25-3० दिन बाद 
  2. सल्फोससल्फुरान 20 gm / ha.
  3. 2-4-d का 0.5 kg / ha.
  4. मेटस्ल्फुरान 4-5- gm /ha.  

खरपतवार नियंत्रण के लाभ

  1. पोधो में किसी भी प्रकार का रोग आने की सम्भावन नही होती. .
  2. फसल में उर्वरको की कमी पोधो को नही होती.
  3. फसल स्वास्थ्य अछा रहता है .
  4. फसल को अधिक सिचाई की आवश्यकता नही.
  5. फसल की गुणवता अच्छी.
  6. फसल के दानो में किसी भी प्रकार की कोई मिलावट नही 
  7. फसल की उपज अधिक आना.
  8. फसल का समय में तेयार होना.
  9. फसल कटाई में आने वाली समस्या से निजात.

बाजार में उपलब्ध गेहू के खरपतवारनाशी



पादप संरचना व कार्यिकी में किसी कारणवश आये परिवर्तन, जो उनको नुकसान पहुंचाकर उनका आर्थिक महत्व एवं उपज घटा देते हैं, उनको पादप रोग, बीमारी अथवा पादप व्याधि कहते हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए, पौधों के रोगों अथवा बीमारियों को सामान्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है: बीज जनित रोग, मृदा जनित रोग व वायु जनित रोग। इन तीनों श्रेणियों के बीच अन्तर करने वाली कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं है और एक रोगजनक अपने अस्तित्व के लिए एक या एक से ज्यादा तरीकों को अपना सकता है। उदाहरण के लिए, गेहूँ के अनावृत कंड रोग का रोगजनक अस्टीलैगो सेगेटम प्रजाति ट्रिटीसी एक अंतरू बीज-जनित और बीज संचरित रोग है, क्योंकि रोगजनक का निष्क्रिय कवकजाल बीज के भ्रूण में स्थित होता है। जब इन संक्रमित बीजों को बोया जाता है, तो कवकजाल (माइसेलियम) सक्रिय हो जाता है और बिना किसी लक्षण के प्रकट किए, पोषक पौधे के साथ बढ़ता है।


जब पुष्पन के बाद बालियां बनती हैं, तो रोगजनक खुद को व्यक्त करता है और स्वस्थ बालियों के स्थान पर कंड रोग ग्रसित बालियां लाखों टीलियो बीजाणु युक्त दिखाई देती हैं। कुछ समय पश्चात इन टीलियो बीजाणुओं को वायु द्वारा उड़ा दिया जाता है, ताकि ये दूसरे पौधों को संक्रमित कर सके। इस प्रकार, हम देखते हैं कि यद्यपि रोग बीज जनित है, फिर भी यह अपने जीवन-चक्र को पूरा करने के लिए वायु की सहायता लेता है। रोग के संक्रमण की प्राथमिक शुरूआत ही रोग की प्रकृति को तय करती है।


बीज-जनित बीमारियों व उनके रोग जनकों का महत्व: बीज-जनित रोगजनक खेत में अंकुर स्थापना के लिए एक गंभीर खतरा है। इसलिए फसल की विफलता में संभावित कारक के रूप में योगदान कर सकते हैं।


बीज न केवल इन रोगजनकों के दीर्घकालिक अस्तित्व को सुरक्षित बनाते हैं, बल्कि नए क्षेत्रों में उनके आगमन और उनके व्यापक प्रसार के लिए वाहन के रूप में भी कार्य कर सकते हैं।

बीज-जनित फफूंद, जीवाणु, विषाणु, सूत्रकृमि आदि रोगजनक अनाज़वाली फसलों में विनाशकारी नुकसान का कारण बन सकते हैं और इसलिए सीधे खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करते हैं।


लक्षण-रहित हो सकते हैं, जिससे उनकी पहचान असंभव हो जाती है। गेहूँ के बीज जनित रोग व उनकी रोकथामः गेहूँ में अनेक प्रकार के रोगजनक बीजजनित बीमारियां उत्पन्न करते हैं। बीज जनित रोग तीन प्रकार के होते हैं। अतः बीज जनित रोग, बाह्य बीज जनित रोग एवं अपमिश्रणय और रोग प्रबंधन की रणनीति रोग जनक के निवेश द्रव्य की बीज पर उपस्थिति के स्थान के ऊपर निर्भर करती है ।

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बीज जनित रोगों के द्वारा किए गये प्रत्यक्ष नुकसान उपज में कमी, अंकुरण क्षति, ओज में कमी और पादप रोगों की स्थापना, बीज के सिकुड़ने, बदरंग होने एवं बीज के अंदर जैव-रसायनिक परिवर्तन के रूप में नापा जा सकता है। कुछ प्रमुख बीज जनित रोग और उनकी रोकथाम इस प्रकार है


1. गेहूं का करनाल बंट (अधूरा बंट): यह रोग अपेक्षा त उपज में कम हानि करता है परन्तु अनेक देशों की संगरोध सूची में शामिल होने के कारण यह अति महत्वपूर्ण है।


रोग लक्षण: करनाल बन्ट प्राय: कुछ दाने प्रति बाली तक ही संक्रमण करता है। इसलिये इस रोग की फसल की कटाई से पहले पहचान करना आसान नहीं है। फसल की कटाई के पौधों के संक्रमित वायवीय भागों के पश्चात रोग को आसानी से दृष्टि परीक्षण द्वारा पहचाना जा सकता है। काले रंग के टीलियो बीजाणु बीज के कुछ भाग का स्थान ले लेते हैं। इसमें बाहरी परत फट जाती है अथवा यह जुड़ी हुई भी रह सकती है। रोगी दानों को कुचलने पर ये सड़ी हुई मछली की दुर्गन्ध देते हैं।


विपरीत, संक्रमित बीज रोग का विकास एवं फैलाव: यह रोग मुख्य रूप से दूषित बीज या खेत उपकरण के माध्यम से फैलता है। हांलाकि इसे हवा द्वारा कम दूरी पर भी ले जाया जा सकता है। कवक बीजाणु कई वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। अनुकूल मौसम में इनका अंकुरण होता है। एक बार बीजाणु अंकुरित होने के बाद, वे गेहूं के फूलों को संक्रमित करते हैं और कर्नेल के भ्रूण के छोर पर बीजाणुओं के बड़े समूह को विकसित करते हैं (संपूर्ण कर्नेल कभी-कभी ही प्रभावित होता है)। आपेक्षिक आर्द्रता 70 से अधिक होना टीलियोबीजाणुओं के विकास के अनुकूल है। इसके अलावा, दिन का तापमान 18-24 डिग्री सेल्सियस और मिट्टी के तापमान का 17-21 डिग्री सेल्सियस की सीमा में होना करनाल बंट की गंभीरता बढ़ाता है।

रोग की रोकथाम: 

● स्वस्थ एवं रोगमुक्त बीज की बुवाई करनी चाहिए।


● फसल चक्र को अपनाएं।


• खेत के आस-पास खरपतवारों एवं कोलेट्ल पोषक पौधों को नहीं उगने देना चाहिए।


● क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें। ● पुष्पन के समय 01% प्रोपिकॉनाजोल 25%


ई.सी. का छिड़काव करें। 2. गेहूँ का अनावृत कंड (लूज स्मट) रोग:


रोग लक्षण: यह रोग अंत: बीजजनित रोग है। इसका रोग कारक अस्टीलैगो सेगेटम प्रजाति ट्रिटीसी कवक है। इस रोग के लक्षण केवल बालियां निकलने पर दृष्टिगत होते हैं। इस रोग में पूरा पुष्पक्रम (रैचिस को छोड़कर) स्मट


बीजाणुओं के काले चूर्णी समूह में परिवर्तित हो जाता है। यह चूर्णी समूह प्रारम्भ में पतली कोमल धूसर झिल्ली से ढका होता है, जो शीघ्र ही फट जाती है और बड़ी संख्या में बीजाणु वातावरण में फैल जाते हैं। ये काले बीजाणु हवा द्वारा दूर स्वस्थ पौधों तक पहुंच जाते हैं जहाँ ये अपना नया संक्रमण कर सकते हैं।


रोग का विकास एवं फैलावः अनावृत कंड के रोगजनक के टीलियोबीजाणुओं को हवा द्वारा खुले पुष्पों पास उड़ाकर पहुंचाया जाता है और ये अंडाशय को स्टिग्मा या सीधे अंडाशय की दीवार के माध्यम से संक्रमित करते हैं। एक खुले पुष्पक (फ्लोरेट) में पहुंचने के बाद, टीलियो बीजाणु बेसिडियो बीजाणु को जन्म देते हैं। बेसिडियो बीजाणु वही अंकुरण करते हैं। दो संगत बेसिडियो बीजाणु के हाइपे फिर एक द्विकेंद्रकीय चरण को स्थापित करने के लिए संलयन (फ्यूज) करते हैं।


अंडाशय के अंदर अंकुरण के बाद, कवकजाल बीज में विकासशील भ्रूण पर आक्रमण करता है। कवक बीज में अगले बुवाई मौसम तक जीवित रहता है। बुवाई के बाद जैसे-जैसे नया पौधा बढ़ता है, इसके साथ कवक बढ़ता है। एक बार जब फूलों के बनने का समय होता है, तो फूलों के स्थान पर टीलियो बीजाणु उत्पन्न होते हैं और विकसित होते हैं जहाँ कि बीज अथवा दानों को बनना था। रोगी पौधे गेहूँ के स्वस्थ पौधों की तुलना में लंबे होते हैं और उनमें पहले बालियां निकल आती हैं। इससे संक्रमित पौधों को यह फायदा होता है कि असंक्रमित पौधों के फूल संक्रमण के लिए शारीरिक और रूपात्मक रूप से अतिसंवेदनशील होते हैं। हवा और मध्यम बारिश, साथ ही साथ ठंडे तापमान (16-22 डिग्री सेल्सियस) बीजाणुओं के फैलाव के लिए आदर्श होते हैं। रोगी बालियों से टीलियो बीजाणु स्वस्थ पौधों के खुले पुष्पों पर पहुंचता है और इस प्रकार रोग विकास चलता रहता है।


रोग की रोकथाम:


● स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज ही बोने चाहिए। ● बुवाई पूर्व बीज को 0-2.5 ग्राम की दर से कार्बोक्सीन (75%) या कार्बोक्सीन (37. 5%) थीरम (37.5%) या कार्बेन्डाजिम 50% घुलनशील पाउडर से उपचारित कर लें।


● मई-जून माह में बीज को पानी में 4 घंटे भिगोने के बाद कड़ी धूप में अच्छी तरह सुखाकर सुरक्षित भंडार किया जा सकता है। पानी में भिगोने से बीज में पड़ा रोगजनक सक्रिय हो जाता है, जो कड़ी धूप में सुखाने पर मर जाता है। ऐसे बीज को अगले मौसम में बोने से रोग नहीं पनपता है। यदि फसल बीज हेतु बोई गई है, तो बाली निकलते समय उसका निरीक्षण करते रहना चाहिए। यदि कंडुआ ग्रस्त बालियां दिखाई दें, तो उन्हें किसी कागज की थैली से ढक कर पौधे को उखाड़ कर जला दें या


मिट्टी में दबा दें।


3. गेहूँ का झौंका, बदरा या ब्लास्ट रोग: अभी तक यह रोग भारत में नहीं पाया जाता है। सर्वप्रथम यह रोग ब्राजील में 1985 मेंदेखा गया था और इसका फैलाव बोलीविया, अर्जेन्टीना, पैराग्वे, उरुग्वे तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तक सीमित था सन् 2016 में यह रोग हमारे पड़ौसी देश बांग्लादेश की सीमा में पाया गया था। चूंकि बांग्लादेश की सीमा का लगभग *4096 किलोमीटर क्षेत्र भारत की सीमा से लगता है तथा पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की करीब 11 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र को जलवायु भी ब्लास्ट के संक्रमण तथा फैलाव के लिए उपयुक्त है इसलिए आशंका जताई जा रही है कि यह व्याधि भारत के उत्तरपूर्व मैदानी जलवायु क्षेत्रफल में फैलकर गेहूं की फसल को हानि पहुंचा सकती है।


रोग लक्षण: यह रोग पत्तियों, बालियों तथा दानो को संक्रमित करता है। पत्तियों पर शुरू में पानी में भीगे हुए जैसे गहरे हरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो बाद मे भूरे रंग के नाव के आकार के हो जाते हैं। सङ्क्रमित पत्तियां जल्दी सूख जाती है। बालियों पर रोग काफी स्पष्ट एवं भयंकर रूप में आता है। संक्रमित बालियाँ समय से पहले ही सूख जाती हैं। दाने हल्के, बदरंग, तथा पतले हो जाते हैं या इनमें दाने नहीं पड़ते हैं।


रोग का विकास एवं फैलाव: यह रोग मैग्नोपार्थे ओराइजी पैथोवार ट्रिटीकम नामक कवक से होता है। रोग के फैलने के लिए 18-30 डिग्री सेल्सियस का तापमान व 80% से -अधिक आपेक्षिक आर्द्रता सबसे अधिक अनुकूल वातावरणीय दशाएं हैं। कई दिनों तक औसत तापमान 18-25 व सेल्सियस और चारिश के बाद धूप तथा आर्द मौसम महामारी फैलने के लिए अनुकूल होता है। रोग का द्वितीय सार कोनिडिया के माध्यम से होता है। वायु की उपस्थिति में अधिकांशत: कोनिडिया 700 मी. से 1000 मी. तक यात्रा कर सकते हैं। ज्यादा लम्बी दूरी तक रोग के प्रसार के लिए। गजनक से संक्रमित बीज ही एकमात्र साधन


ग की रोकथामः


● सदैव प्रमाणित और रोगमुक्त बीज का प्रयोग करें। प्रतिरोधी गेहूँ की किस्मों का उपयोग करें।


प्रतिरोधी किस्मों से अतिसंवेदनशील किस्मों को बदलें।


● कवकनाशी जैसे कार्बोक्सीन या कार्बेन्डाजिम के साथ 5 ग्रामर्धक.ग्रा. या टेबूकोनाजोल 1.0 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की प दर से बीज को उपचारित करें।




● पत्तियों और स्पाइक पर रोग के लक्षणों की उपस्थिति के लिए नियमित रूप से फसल हि की निगरानी करें।


● गेहूं के खेत में और आसपास पास विशेषकर मंडुआ, भरटा, सांवक, तकड़ा, कनकी और लीर्सिया घास को नियमित रूप से हटा दें और नष्ट करें।




● रोग का संक्रमण होने पर कवकनाशी क (ट्राइफ्लोक्सीस्ट्रोबीन 50% टेबकोनाजोल ट 25% डब्ल्यू. जी.) का 120 ग्राम / 200 लीटर पानी प्रति एकड़ के साथ फसल पर छिड़काव करें।


4. गेहूं का ध्वज कंड (फ्लैग स्मट) रोग: रोग लक्षण: यह रोग यूरोसिसटिस एग्रोपाइरी नामक कवक से होता है। इस रोग में पत्तियों पर चाँदी के रंग के धब्बे बीजाणु धानी पुंजों के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जो कवक के गहरे भूरे रंग के बीजाणु धानियों से भरे होते हैं। पत्तियों पर लम्बी काली धारियां शिराओं के समानान्तर बनती है। पत्तियां ऐंठ जाती है और ध्वज कंड ग्रसित पत्ती काली होकर सूख जाती हैं। प्राय: रोगग्रस्त पौधों की बालियों में दानें विकसित नहीं होते और वे समय से पहले ही मर जाते हैं। रोग का विकास एवं फैलावः रोगजनक


टीलियो वीजाणु उत्पन्न करता है, जो हवा, कृषियंत्रों या पशुओं के द्वारा मिट्टी से वितरित किया जा सकता है। मृदा में एक द्विकेंद्रकीय टीलियो बीजाणुचार बेसिडियो बीजाणुओं को उत्पन्न करता है। बेसिडियो बीजाणु नये पौधों के ऊपर पर अंकुरण करता है और प्रत्येक कवक तंतु एक संगत कवक तंतु के साथ कोशिका द्रव्य लयन (प्लास्मोगैमी) करके कवक के द्विकेंद्रकीय (डाइकैरियोटिक) स्थिति को फिर से स्थापित करता है। कवक तंतु एप्रेसोरिया बनाता है, जो एपिडर्मल ऊतक के माध्यम से उगते हुए बीज के अंकुर के कोइलोप्टाइल में प्रवेश करता है, फिर पत्तियों के संवहनी बंडलों के बीच कवक तंतु बढ़ता है। कुछ कवक तंतु कोशिकाएँ कंड सोरई को जन्म देती हैं, जिसमें टीलियोस्पोर्स होते हैं, जो हवा द्वारा पत्ती ऊतक से बाहर निकलते हैं। टीलियोस्पोर मिट्टी में विश्राम करने के लिए आते हैं, और जब स्थिति सही होती है, तो वे अधिक बेसिडियोस्पोर को जन्म देते हैं, जिससे संक्रमण फैलता है।


वैकल्पिक रूप से, टेलियो बीजाणु बीज में तब बन सकते हैं, जब माइसेलिया पूरे पौधे में उगता है, उस स्थिति में वे बीज के भीतर अंकुरित होकर फिर से बेसिडियोस्पोर उत्पन्न करके नए संक्रमण को जन्म देते हैं। टेलियोस्पोर्स मिट्टी में मृत पौधे के ऊतकों और बीज में उत्तरजीवी होते हैं। ये बीजाणु 3-7 वर्षों तक अंकुरण जीवटता बनाए रखते हैं।


रोग की रोकथाम:


● देरी से बिजाई न करें। गैर-पोषक फसलों के साथ फसल चक्र अपनाएं।


● बीज कोकार्बोक्सीन (75% डब्ल्यू.पी.) या कार्बोक्सीन (5%) थीरम (37.56) या थीरम 75% घुलनशील पावडर से 2. 0-2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करें।


● रोगग्रस्त पौधों को खेत से सावधानीपूर्वक उखाड़ कर नष्ट कर दें।


● क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोगरोधी किस्मों की बुवाई करें। 5. गेहूँ का फ्यूजेरियम हेड स्कैब रोग:



धीरे-धीरे पूरी बाली पर फैल जाते हैं, जिसे समय से पहले बालियों को 'सफेद' या 'विरंजन' के रूप में देखा जा सकता है। गर्म और नम हालत में रोगजनकों के गुलाबी स्पोर्स को स्पाईक्स के बीच में या आधार पर देखा जा सकता है। बीमारी की प्रगति पर दाने सूखे, सिकुड़े हुए, खुरदरी सतह के फीके सफेद से हल्के भूरे रंग के बनते हैं। ऐसे हल्के वजन के संक्रमित कर्नेल को आमतौर पर 'टॉम्बस्टोन' कहा जाता है।


रोग विकास एवं फैलाव: गर्म और नम जलवायु बीमारी के अनुकूल है, यद्यपि वर्तमान में यह रोग भारत में मामूली महत्व का है और पंजाब और हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में पाया जाता है।


रोग की रोकथामः


● खेत स्वच्छता के सिद्धांत का पालन करें। पूर्व की फसल के अवशेषों को खेत से निकाल कर नष्ट कर दें।


फसल बुवाई के लिए प्रमाणित और •बीमारी मुक्त बीज का प्रयोग करें। ● क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत की गई रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।


बीजों को कार्बोक्सीन या कार्बेन्डाजिम के साथ 2.5 ग्राम/किग्रा. या टेबूकोनाजोल 1.25 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। उच्च गुणवत्ता वाला स्वस्थ रोग रहित बीज प्राथमिक स्तर के रोग प्रबंधन के लिए अतिआवश्यक है। अच्छे फसल उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण व सबसे पहली शर्त गुणवत्ता युक्त रोग रहित बीज की उपलब्धता है। इन बीज जनित रोगों ने विशेषत: अनाज वाली फसलों में अलग-अलग समय अन्तरालों के अन्दर अनेकों महामारी के रूप में समाज को प्रभावित किया है। साथ ही साथ आधुनिक कृषि में नई तकनीकों के अंगीकरण व रोग प्रबंधन के नये नये बेहतर विकल्पों के उपलब्ध होने के कारण इन फसल महामारियों की घटना में काफी कमी आई ।




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